रविवार, 8 सितंबर 2013

कमाऊ पूत: किश्त दो

अनायास ही अशोक का मन घर के अतीत में चला गया। शायद माँ के इस बदलाव का उत्तर पाने के लिए या यूँ ही माहौल में कुछ अजीब सा लगा इसलिए। पहले तो माँ बेटी के बीच किसी भी वक़्त चिंगारी भड़क उठती थी। रात -रात भर बहसे होती थी। जबकि घर के सारे काम जब से करने लायक हो गयी छाया ही करती थी। दोनों के बीच असंतुष्टि का कारण अभी भी उसके समझ में नहीं आया। इतना जरुर उसके जेहन में बैठ गया की नौकरी करने से माँ बाप का स्नेह बढ़ जाता है। अपनी इज्जत में इजाफा हो जाता है। लोग बाग़ आकर सलाह लेने लगते हैं। लोग नाम से नहीं पद से बुलाने लगते हैं। जैसे डॉक्टर साहब, इंजिनियर साहब, मिलिट्री वाले भैया जी वगैरह वगैरह। भरी भीड़ में लोग आप को पहचान जाते है। जिस रिश्तेदार का आपने कभी मुंह नहीं देखा, पहुंचते ही अपने निक्कमे बेटे को बोलता है- पैर छू,पहचानता नहीं क्या! ये फलाने के बेटे के हैं जो इंस्पेक्टर हो गए हैं। आजकल हर कोई उज्जवल भविष्य की उम्मीद वाले शख्स से प्यार करता है। संबंधो की प्रगाढ़ता आपके भविष्य की लगातार उन्नति पर निर्भर करती है।

दीदी की आज नौकरी लग गयी है। माँ खुश है। सबसे मनहूस और अभागी बेटी अब होनहार और नाम रोशन करने वाली हो गयी है। घर की लाडली। मानो दीदी की नौकरी के साथ ही माँ की चिडचिडाहट का अंत हुआ और प्यार का सोता फूट पड़ा। सही सही बात भी है पढाई से बड़ा आजकल कौन सद्गुण है और नौकरी से बड़ा कौन फल? माँ -बाप की भी एक मात्र आकांक्षा यही होती है की उनका बेटा पढ़े और नौकरी करे। जिससे उनका नाम रोशन हो अपने लिए तो वो कुछ चाहते नहीं। पर मनोज और छाया इत्ती छोटी सी बात को समझते ही नहीं। यही सब सोच रहा था की छाया ने आवाज दी भैया नहा लीजिये खाना बन गया है।

रात को महफ़िल जमी सब इकठ्ठा हुए। अशोक ने जिम्मेदारी से पूछा- पापा जी कैसा मैनेजमेंट है शादी का। कोई प्रॉब्लम ? पापा जी -नही बेटा अब तुम आ गए हो सब बढ़िया ही होगा। तभी माँ कटे हुए फल लेकर आई -लो बेटा खा लो। माँ ने खातिरदारी के लहजे में कहा। अशोक-अभी तो खाना खाया है माँ,..अरे मनोज तुम लो न। मनोज -अरे भैया आप खाइए मैं तो घर में ही रहता हूँ। अशोक -अरे छाया तुम भी खाओ ना और बच्चों भी बाँट दो। माँ बीच में ही बोल पड़ी -तुम तो ऐसे कर रहे हो जैसे मैं इनको कभी देती ही न होऊं। अपना चेहरा नहीं देख रहे हो कितना सूख गया है। पिता जी -हाँ सही तो कह रही है माँ। अब जल्दी से खा लो कल बहुत सार काम होगा।

कविता की शादी को एक साल हो गए थे। घर में सब कुछ ठीक चल रहा था अब छाया और मनोज के ऊपर दबाब और बढ़ गया था। भैया और दीदी के आदर्श उन पर ज्यादा दबाब बनाने लगे थे। दिन भर कितनी ही बार उन्हें "कुछ बनो " का प्रवचन सुनना पड़ता था। शिवमोहन और उनकी पत्नी बेटे के अमेरिका जाने से फूले न समाते थे। मानो बड़ा बेटा बिना कंधे में उठाये ही श्रवण कुमार का कर्तव्य निभा रहा हो। सबसे कहते फिरते आज के जमाने में सबसे बड़ी तीर्थयात्रा विदेश जाना है माने अमेरिका। वहाँ वही लोग जाते है जिन्होंने अच्छे कर्म किये हैं। मेरे बेटे ने पूरे गाँव का नाम ऊँचा कर दिया। देश का नाम भी इससे विदेशों में बढ़ता है।

पर बेचारे मनोज के कुछ न कर पाने से बड़े दुखी थे। धीरे-धीरे उनको डर सताने लगा की अब ये कुछ नहीं कर पायेगा। लगता है घर में ही रहेगा। बस बच्चे के कुछ करने के उधेड़बुन में दिन भर डूबे रहते है। एक दिन मनोज को बड़े प्यार से समझाया -बेटा तू भी कुछ कर ले। एक काम क्यूँ नहीं करता कोई बिज़नस शुरू कर दो। कुछ पैसे मेरे पास पड़े है, कुछ भैया से मांग लो। मनोज -पापा इतनी जल्दी क्या है? पिता जी -झुन्झुलाते हुए अब नहीं तो क्या मेरे मरने के बाद करेगा ! मैं चाहता हूँ तू भी संभल जा एक दो पैसे कमाने लगे। पर कहते हैं अपना सोचा कब होता है। मानो शिव मोहन जी के घर को किसी की नजर लग गयी। अगले दिन शिवमोहन जी घर जल्दी आ गए। आते ही आवाज दी छाया …छाया -जोर से- हाँ पापा जी -और आश्चर्य से- आज इतनी जल्दी? पिता जी-हाँ तबियत ठीक नहीं है। पीछे से माँ -अरे क्या हुआ? बुखार है क्या? मनोज को फ़ोन कर दो मेडिकल स्टोर से कुछ दवाइयां लेता आएगा।

मनोज को पहुँचने में बिलकुल देर नहीं लगी। बीमारी की खबर सुनकर दोस्त भी साथ आ गए। शिवमोहन जी की तबियत बिगड़ती जा रही थी। मनोज ने पिता जी के चहरे में अजीब सा डर और बेचैनी देखी। पूछने पर सिर्फ इतना बुदबुदाये की शरीर सुन्न पड़ता जा रहा है। आनन फानन में मनोज अस्पताल ले कर भागा। उनका पूरा शरीर निरीहता और आशंका की गोद में सिकुड़ता जा रहा था। मनोज अपनी व्याकुलता को जब्त करने के लिए मन ही मन प्रार्थना कर रहा था। मन ही मन अपने को कोस रहा था। वह उस समय घर पर क्यूँ नहीं था। जल्दी अस्पताल ले आता। डॉक्टरों ने सीधे उन्हें आईसीयू में भर्ती किया। बाहर मनोज के दोस्त छाया और माँ सब आशंकित थे। अनिश्चितता और से भय से पूर्ण सब की नजरें आईसीयू की तरफ गडी थीं। अनहोनी की आशंका सबके के चहरे पर फ़ैल गयी थी। तभी डॉक्टर बाहर निकला और बोला-किसी बड़े को अन्दर भेजो। मनोज -हाँ कहिये मैं उनका बेटा हूँ। डॉक्टर बेड की तरफ इशारा करते हुए-आपके पिता जी का लेफ्ट साइड पैरालाइज्ड हो गया है। मनोज को गहरा सदमा लगा। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। मानो सब कुछ ख़तम हो गया। तभी डॉक्टर ने कंधे झकझोरते हुए कहा –पेशन्स से काम लो ठीक हो जायेगा इन्हें दिल्ली ले जाओ। मनोज की चेतना लौटी वो अचानक बड़ा हो गया था। दर्द और पीड़ा ने उसे समझदार बना दिया। कर्त्तव्य ने उसे सख्त कर दिया। कहते हैं दुःख की घडी में प्यार अँधा नहीं होता बल्कि सेवा और कर्तव्य की ज्योति बनाकर पथ प्रदर्शित करता है। मनोज पिता जी को हर कीमत पर स्वस्थ देखना चाहता था। पिता जी को ले के दिल्ली आया।

जल्दी ही कविता दीदी और जीजा जी भी दिल्ली पहुँच गए। दिल्ली में रहने वाले एक-दो रिश्ते दार भी आ गए। शिवमोहन जी की तबियत धीरे-धीरे सुधारने लगी। माँ ने अमेरिका फ़ोन किया। अशोक परेशान हो गया उसने कहा तुम सब लोगों में मुझे तुरंत क्यूँ नहीं बताया। माँ ने धीरज औरे संयमित स्वर में कहा -बीटा उस समय तुम करते भी क्या ? बेचैन और लाचार आवाज में असोक ने कहा -माँ मैं कुछ पैसे पापा जी के अकाउंट में डाल रहा हूँ। मनोज् को कहना निकाल लेगा...मै जल्दी ही आ रहा हूँ।