शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

उम्मीद..















कुछ इस तरह..

दस बाय बारह का कमरा है
आज की ज़िन्दगी जहाँ बसी है,
एक समूची दुनिया अपने औज़ारों के साथ।
बिखरी किताबें, फैले कपड़े,
टूटी कुर्सी, अधमजे बर्तन
इन सबके बीच बैठा
एक आदमी खोजता है, ज़िन्दगी की गलियाँ।

अपनी ताकत को बटोरते, अधमरे पेट के साथ,
वह नहीं जायेगा गाँव,
नहीं ताकेगा आकाश,
जहाँ तारों की गिनती मुश्किल,
नहीं दौड़ेगा उन पगडंडियों में, जो ख़त्म नहीं होती थी।
वह यहीं रहेगा दस बाय बारह के कमरे में,
चार लीटर पानी और पाँच किलो आटे के साथ

क्योंकि बड़े बनने का रास्ता
अब नदियों के किनारे से नहीं, नालियों के ऊपर से जाता है।

और गाँव में तो फ़िर सूखे की उम्मीद है।